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पटुआ चित्रकला: पश्चिम बंगाल की प्राचीन सांस्कृतिक धरोहर

डॉ. राजकुमार पांडेय (कला समीक्षक) देवभूमि उत्तराखंड विश्वविद्यालय, उत्तराखंड

जिला ब्यूरो चीफ आनंद साहू

पश्चिम बंगाल की कला और संस्कृति भारतीय सभ्यता के महत्वपूर्ण अंगों में से एक हैं। यह राज्य अपने ऐतिहासिक, सांस्कृतिक तथा विविधतापूर्ण विरासत के लिए प्रसिद्ध है। पश्चिम बंगाल की कला व संस्कृति में व्यापकता और गहराई की भावना होती है। इसी भावना के अंतर्गत विविध आयाम भी दृष्टिगत होते हैं, जैसे- चित्रकला, संगीत, लोककला, साहित्य, इतिहास इत्यादि! चित्रकला: पश्चिम बंगाल की चित्रकला उसकी विविधता और विस्तार का प्रतिक है। बंगाली चित्रकला में रस, भावना और आलोचनात्मकता का एक अद्वितीय मिलन है। रजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक विषयों पर आधारित चित्रकला पश्चिम बंगाल की विरासत का महत्वपूर्ण हिस्सा है। साहित्य: पश्चिम बंगाल की साहित्यिक परंपरा भारतीय साहित्य के लिए गर्व की बात है। रबीन्द्रनाथ टैगोर, सत्याजित राय, बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय, और सारदा चंद्र चट्टोपाध्याय जैसे महान साहित्यकारों के योगदान ने इस क्षेत्र को विशेष महत्व दिया है। संगीत: पश्चिम बंगाल का संगीत भारतीय शास्त्रीय संगीत की एक प्रमुख शाखा है। रविंद्र संगीत की शैलियों में बंगाली संगीत की विशेषता है। रविंद्र संगीत में भक्ति और प्रेम के गाने, राग और ताल की विविधता और मौसीकी की सुंदरता है। रंगमंच: पश्चिम बंगाल का रंगमंच संस्कृति भारतीय नाट्य कला के प्रमुख केंद्रों में से एक है। बंगाली नाट्य नृत्य, नाटक और गीतों के माध्यम से समाजिक संदेश को प्रस्तुत करता है। पश्चिम बंगाल की कला और संस्कृति उसकी समृद्ध और विविधतापूर्णता का प्रतीक है, जो उसे अन्य राज्यों से अलग बनाता है। पश्चिम बंगाल की लोककला उसकी सांस्कृतिक धरोहर का महत्वपूर्ण अंग है। यहाँ की लोककला अपने विविधतापूर्ण सादगी और सामाजिक संदेश को साझा करने में दम ख़म रखती हैl उदाहरण के रूप में गाने-बजाने: पश्चिम बंगाल के लोक संगीत और नृत्य उसकी लोक कला का महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। गायन और वादन-बाजा बजाने के माध्यम से लोग अपनी संवेदनाओं व सामाजिक संदेश को साझा करते हैं। जात्रा: पश्चिम बंगाल में जात्रा एक प्रमुख लोक कला आयोजन है, जिसमें धार्मिक कथाओं को उत्सव के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। यहाँ लोग रंग-भरे परिचालन, नृत्य और संगीत के माध्यम से धार्मिक भावनाओं को व्यक्त करते हैं। कथा गायन: बंगाल के लोककला में कथा गायन का विशेष स्थान है। यहाँ लोग अपनी दिनचर्या, इतिहास, समाज की कथाओं को गाकर सुनाते हैं। चित्रकला: पश्चिम बंगाल की लोक चित्रकला विविधता रंगीन तथा सादगी से भरी होती है। यहाँ के कलाकार अपनी रेखा व रंग-भरी चित्रकला के माध्यम से समाजिक संदेश और कथाओं को प्रस्तुत करते हैं। पश्चिम बंगाल की लोक कला उसके समृद्ध इतिहास, सामाजिक संदेश और विविधतापूर्णता का प्रतीक है। यहाँ की कला समाज को एक साथ लाने और उसकी सांस्कृतिक विरासत को संरक्षित रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। इसी का एक महत्वपूर्ण भाग है पटचित्र! पश्चिम बंगाल में पटचित्र कला एक प्रमुख लोक कला है, जो उसकी विविधता और समृद्ध विरासत को दर्शाती है। पटचित्र भव्य रंग, संवेदनशीलता और व्यक्तिगत अभिव्यक्ति का प्रतीक है।

पटुआ पेंटिंग भारतीय लोक चित्रकला का महत्वपूर्ण हिस्सा है। इसकी शुरुआत पश्चिम बंगाल में हुई, जहां यह परंपरागत रूप से पाटी (या पट्ट) के ऊपर चित्रित किया जाता है। यह पेंटिंग्स स्क्रॉल पर बनाई जाती हैं, जिसमें पुराने साड़ियों का उपयोग किया जाता है। इसमें देवी-देवताओं की कथाओं को चित्रित किया जाता है, जो लोगों को मनोरंजन प्रदान करते हैं। पटुआ कला विशेष रूप से गाँवों में प्रसारित हुई, जहां चित्रकार देवी-देवताओं की कहानियाँ सुनाते रहते थे। इस कला के माध्यम से सामाजिक संदेशों को भी साझा किया जाता है। पटुआ पेंटिंग्स भारतीय सांस्कृतिक विरासत का महत्वपूर्ण हिस्सा है और इसका विशेष महत्व है। दूसरे शब्दों में कहा जाय तो पटुआ पेंटिंग्स जो कागज या कपड़े के स्क्रॉल पर चित्रित होती हैं, साहित्यिक और सामाजिक माहौल को अपनाती हैं। चित्रकार सड़कों पर अपने काम को प्रदर्शित करते हैं और उनमें कथाएं गाते हैं। ये स्क्रॉल्स पौराणिक और ऐतिहासिक कहानियों को बताते हैं, साथ ही समकालीन समाचार और घटनाओं को भी चित्रित करते हैं। इसके माध्यम से समाज में जागरूकता फैलाई जाती है और लोगों के बीच बातचीत को बढ़ावा दिया जाता है। पटुआ पेंटिंग्स की विशेषता उनकी विविधता में है, जो ऐतिहासिक परंपराओं को संजीवनी देती है और समय के साथ बदलाव में भी अपनी जगह बनाए रखती है।
पटुआ समुदाय एक प्रमुख हस्तशिल्पकार समुदाय है, जो अपनी विशेष रीति से पटचित्र बनाकर उन्हें प्रदर्शित और विक्रय करता है। ये कलाकार पश्चिम बंगाल, बिहार, झारखंड, उड़ीसा और बांग्लादेश के अन्य भागों में प्रसिद्ध हैं। इस समुदाय में हिन्दू और मुस्लिम दोनों धर्मों के लोग शामिल हैं। ‘पटुआ’ शब्द ‘पट’ से निर्मित है, जो पटचित्रण की प्रमुखता को दर्शाता है। यह प्राचीनकाल से पश्चिम बंगाल के गाँवों में प्रचलित रहा है और आज भी कुछ कालीघाट चित्रकला में इसका प्रभाव देखा जा सकता है।
पटुआ चित्रकारों का अस्तित्व लगभग 13वीं सदी तक माना जा सकता है, जैसा कि ऐतिहासिक और पौराणिक स्मृतियों से पता चलता है। भारतीय वर्ण व्यवस्था में इस समुदाय की स्थिति को लेकर विभिन्न व्याख्याएँ हैं। पटुआ समुदाय अनूठा है, क्योंकि उनका परंपरागत व्यवसाय हिंदू मूर्तियों की चित्रकला और मूर्तिकला है, हालांकि उनमें से बहुत से मुस्लिम हैं। उनका नाम ‘पटुआ’ बंगाली शब्द ‘पोटा’ का अपभ्रंश है, जिसका अर्थ है ‘उत्कीर्णक’। उन्हें ‘चित्रकार’ भी कहा जाता है, जो कि ‘स्क्रोल पेंटर’ यानी लपेटना या लपेटऊ चित्रकार का शब्द है। इस समुदाय की उत्पत्ति के बारे में कई सिद्धांत हैं, जिसमें उनके ब्राह्मण पुरोहितों के साथ झगड़े का भी उल्लेख है। लगता है कि वे मिडनापुर क्षेत्र में पाए जाने वाले कई जनजातियों में से एक थे, जो समय के साथ परिवर्तित इस्लाम हो गए। चित्रकारों ने हिंदूधर्म और बौद्धधर्म से इस्लाम की ओर जाने का निर्णय लिया, लेकिन धर्म के प्रति ध्यान कम दिया। चित्रकार खुद भी सेन वंश के दौरान उत्पन्न जातीय के अत्याचार से बचाव के रूप में इस्लाम धर्म को अपनाने का यह एक रणनीति हो सकता है। यह बात पूर्ण रूप से प्रमाणित होने का संदेह प्रस्तुत करता है,क्योंकि इस संदर्भ में कोई प्रामाणिक उदाहरण दृष्टिगत नहीं होते हैंl यह बहुत धीमी प्रक्रिया थी, जैसा कि पता चलता है कि प्रत्येक पटुआ कलाकार मे दो नाम आते हैं, एक हिंदू और एक मुस्लिम। चित्रकारों ने गाँव की परंपरा में शुरू किया था और धीरे-धीरे उनके पाट या स्क्रोल ने समाज में सामाजिक और राजनीतिक मुद्दों पर टिप्पणी करना शुरू किया है। आजकल उनकी संस्कृति में हिन्दू और इस्लामी दोनों के तत्व मिलते हैं। कभी-कभी उनका बौद्ध धर्म से भी सम्बन्धित होता है। लेकिन आजकल अधिकांश उनमें गरीब मुस्लिम हैं, जो मुख्य रूप से हिन्दुओं की सहायता के अलावा पर्यटकों की सहायता से अपने चित्रित स्क्रोल्स का बिक्री कर अपना जीवन यापन करते हैं। फ्रैंक जे. कोरोम ने अपनी पुस्तक ‘विलेज ऑफ़ पेंटर्स: नैरेटिव स्क्रोल्स फ्रॉम वेस्ट बंगाल’ में इसे समझाया और विश्लेषण किया है। उनकी रिसर्च और विवेचन से पता चलता है कि ये कलाकार अपने कला के माध्यम से अपना जीविकोपार्जन करते हैं।

पटुआ पेंटिंग का समृद्ध एकीकृत प्रभाव हिंदू और सूफी परंपराओं को आत्मसात करता है। प्रारंभ में यह कला मुख्य रूप से हिंदू पौराणिक कथाओं को दर्शाती थी, परंतु समय के साथ समुदाय ने सूफी कहानियों को भी इसमें शामिल किया। पटुआ कला की शैली सरल होती है, लेकिन उसमें अलंकृत सुंदरता होती है। चित्रण के दौरान चमकीले प्राकृतिक रंगों का उपयोग किया जाता है, जो दर्शकों का ध्यान आकर्षित करते हैं । तकनीकी दृष्टिकोण से पटुआ पेंटिंग बनाने की प्रक्रिया व पारंपरिक सामग्री बहुत ही रोमांचक और संवेदनशील होती है। सामग्री के रूप में एक पट्टी या पट्टा तैयार किया जाता है, जिसे पुरानी साड़ियों से बनाया जाता है, ताकि उसकी मजबूती बढ़े। रंगों के लिए प्राकृतिक वनस्पति रंगों का उपयोग किया जाता है, जिसे जलरोधक बनाने के लिए राल के साथ मिलाया जाता है। चित्रित करने के लिए ब्रश के रूप में बांस की डंडियों और बकरी के बालों का उपयोग होता है।प्रक्रिया में एक लंबी पट्टी या स्क्रॉल को तैयार किया जाता है, जिसे ‘जोरानो पत्ता’ कहा जाता है। फिर उस पर विभिन्न चित्रों को सजाया जाता है, जिन्हें वनस्पति गोंद के साथ चिपकाया जाता है। पटुआ पेंटिंग के निर्माण में कला की कौशल की महत्वपूर्ण आवश्यकता होती है। सबसे पहले अलंकरण को हल्के पेंसिल स्केच के रूप में तैयार किया जाता है, जिससे नक्शा बनता है। यह स्केच विस्तृत और सुंदर होता है, जिसमें पेंटिंग के आकार की सीमाएँ दो या तीन रेखाओं से बनाई जाती हैं। फिर रंग भरे जाते हैं और काले रंग का उपयोग करके अंतिम रूप रेखा दी जाती है। यह काम सरल लग सकता है, लेकिन इसमें बहुत कौशल की आवश्यकता होती है, जिसमें समय भी लगता है। इस प्रकार पेंटिंग की विशेषता और सौंदर्य में जानवरों, देवी-देवताओं और कथाओं की अनुपम छवियों को उजागर किया जाता है। यह प्रक्रिया और सामग्री सांस्कृतिक और कला विरासत के रूप में महत्वपूर्ण है, जो पटुआ पेंटिंग को एक विशिष्ट और प्रिय कला बनाता है। पटुआ पेंटिंग की विधि और तकनीक एक समृद्ध परंपरा का प्रतिनिधित्व करती है। इसका पारिवारिक या समूहिक अनुभव उसकी विशेषता है, जहां कुछ सदस्य रूपरेखा तैयार करते हैं, कोई रंग भरता और कोई अंतिम डिज़ाइन को सम्पन्न करता है। इसके लिए प्राकृतिक सामग्री का उपयोग किया जाता था, जैसे कि पत्तियाँ, फूल और हल्दी की जड़ें। रंगों को प्राप्त करने के लिए प्राकृतिक उपयोग होता था, जैसे कि अपराजिता के फूल से नीला, काला तेल के दीपक से काला और हल्दी की जड़ों और बीजों से पीला। प्रारंभ में कपड़े के स्क्रॉल और कैनवास का उपयोग होता था, लेकिन बाद में कागज का उपयोग होता था। इस अनूठे तकनीक की वजह से पटुआ पेंटिंग का अतुलनीय और प्राचीन स्वरूप बना रहा है, जो सांस्कृतिक विरासत के रूप में महत्वपूर्ण है।

पटुआ पेंटिंग की वर्तमान स्थिति एक मिश्रित चित्र है। पहले की तुलना में इसकी प्रतिष्ठा कम हो गई है और कई कलाकारों को इसमें रोजगार की कमी है। हालांकि युवा पीढ़ियों में रुचि के बढ़ने से इस कला को अपनाने के लिए नया जोश मिला है। अब इसे कागज़ या कैनवास पर बनाया जा रहा है, जिससे इसकी विस्तृतता और सुंदरता बढ़ी है। सरकारी सहायता और ग्रामीण शिल्प केंद्रों की स्थापना ने इस कला को फिर से जीवंत किया है। मिदनापुर में पैट माया का आयोजन हर साल अधिक लोगों को इस कला से जोड़ने में मदद करता है। कलाकारों को अब नई रोज़गार के अवसर मिल रहे हैं और गाँव के सांस्कृतिक धरोहर को संरक्षित करने में मदद मिल रही है। इस प्रक्रिया के माध्यम से पटुआ पेंटिंग को नए आयाम और समर्थन मिला हैंl इसमें आज के दौर में गुरुपाद और मोंटू चित्रकार पश्चिम बंगाल की पटचित्रा स्क्रॉल परंपरा के प्रमुख प्रतिनिधि हैं। उनके स्क्रॉलों में महाकाव्यों से लेकर समकालीन विषयों तक की कई कहानियां चित्रित की गई हैं। सुनामी, त्रासदी, धर्मांतरण और इतिहास के महत्वपूर्ण घटनाओं पर उनके काम ने ध्यान आकर्षित किया है। उनके पेंटिंग्स को वनस्पति रंगों से रंगा जाता है। मोंटू की पेंटिंग्स में अकेले पैनल या जंगली जानवरों की छवियों का खूबसूरत वर्णन भी हो सकता है। उनका काम संग्रहालयों में भी प्रदर्शित होता है, जो उनकी विशेष योगदान को सार्वजनिक प्लेटफ़ॉर्म पर लाते हैं। उन्हें ‘द फोक आर्ट मैसेंजर’ के स्प्रिंग 2014 में क्रिस्टीन स्टाइल्स द्वारा लिखित ‘द चित्रकार्स ऑफ नाया’ में प्रस्तुत किया गया है। पाटुआ के चित्रकारों का सामाजिक महत्व विशेष है। उनके चित्रों में स्थानीय जीवन, संस्कृति और समाज की प्रतिबिम्बिति होती है, जो स्थानीय बच्चों को अपनी धरोहर के प्रति उत्साहित करती है। इससे न केवल चित्रकला को बढ़ावा मिलता है, बल्कि स्थानीय समुदाय को भी सम्मान मिलता है! (लेखक के निजी विचार)

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