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स्त्री सौंदर्य का प्रतीक: बिहार की टीकुली कला

डॉ. राजकुमार पांडेय(कला समीक्षक)देवभूमि उत्तराखंड विश्वविद्यालय, उत्तराखंड

जिला ब्यूरो चीफ आनंद साहू

बिहार की कला-संस्कृति अपने ऐतिहासिक और सांस्कृतिक विरासत का प्रतिनिधित्व करती है। मिथिला चित्र, तिकुली कला, मधुबनी चित्र, चौक कला और मुक्तानी कला जैसी प्रमुख शैलियाँ बिहार की प्रमुख लोक कला स्वरुप हैं। इन कला शैलियों में विभिन्न विषयों पर चित्रित किया जाता है, जैसे कि प्राचीन कथाओं, धार्मिक आधार पर कहानियाँ, पर्वत-नदी और प्राकृतिक दृश्य। बिहारी संस्कृति में उत्कृष्ट लोक नृत्य परंपराएं हैं, जैसे कि जत-जानी, सुजनी, झूमर, गोरी नृत्य और झियाँ जैसे लोक नृत्य है। इन नृत्यों में रंग, संगीत और गतिविधि के साथ सामाजिक संदेश और कथाएँ संवेदनशीलता से प्रस्तुत की जाती हैं। बिहार की धार्मिक संस्कृति में भी गहने, परिधान और परंपरागत आराधना की शैलियाँ महत्वपूर्ण हैं। छठ पूजा, होली और चैते दशहरा जैसे पारंपरिक त्योहार बिहारी संस्कृति के अमूल्य अंग हैंl इन्हीं विविधता तथा कलात्मक स्वरूप में नारी सौंदर्य प्रसाधन की प्रासंगिकता प्राचीन से लेकर वर्तमान तक दृष्टिगत होती है।

भारतीय नारी की सुंदरता और आकर्षण उसके सांस्कृतिक धरोहर, अद्भुत वस्त्र, गहनों, विविध रंगों के रूप सज्जा और उत्कृष्ट केश सज्जा में प्रतिष्ठित है। उसका आकर्षण उसके सामाजिक सौंदर्य, संगीत, नृत्य और शक्ति मे निहित है। भारतीय नारी की आदर्श छवि उसकी सादगी, साहस, सामाजिक समर्थन की मजबूती से समर्थन करती है। उसका आकर्षण उसकी शक्ति, साहस, वात्सल्य, स्नेह, चंचलता और संवेदनशीलता का प्रतिनिधित्व करता है। स्त्री शारीरिक सौंदर्य एक व्यापक और समृद्ध विषय है जो विभिन्न युगों और समय के साथ स्त्रियों के शारीरिक सौंदर्य को व्यापक रूप से परिभाषित, मान्यताओं के अनुसार बदला गया है। आज स्त्रियाँ अपने आकर्षकता, स्वस्थता, और स्वाभाविक सौंदर्य को अभिव्यक्त करने के लिए अलग-अलग आभूषणों का उपयोग करती हैं।
स्त्रिय आभूषण समाज में व्यक्तिगत स्वतंत्रता, समृद्धि और सामाजिक स्थिति के प्रतीक के रूप में भी देखे जाते हैं। यद्यपि स्त्रियों के सौंदर्य पर ध्यान केंद्रित करना व्यक्तिगत और सामाजिक पसंद के आधार पर अच्छा हो सकता है, लेकिन यह महत्वपूर्ण है कि उन्हें अपने आत्म-सम्मान और स्वाभिमान का समर्थन किया जाए। स्त्रियों के सौंदर्य को प्रकट करने और उनकी आत्म-प्रतिस्था को बढ़ाने के लिए विभिन्न आभूषणों का उपयोग किया जाता है। उपादान, गहने, परिधान, रूप सज्जा, केश विन्यास और कलात्मक नख जैसे आभूषण स्त्रियों के सौंदर्य को व्यक्त करने के अलावा उनकी आकर्षकता और व्यक्तित्व को भी बढ़ाते हैं। इसी सौंदर्यात्मक पक्ष के संदर्भ में टिकुली महत्वपूर्ण सौंदर्य प्रसाधन के रूप में लिया जाता हैl बिंदी, टिकलिस, टिप, बोटस – ये सभी शब्द विभिन्न भाषाओं और संस्कृतियों में बिंदी को संदर्भित करते हैं, जो भारतीय महिलाओं के लिए एक महत्वपूर्ण आभूषण है। यह आकार और अलंकरण के साथ चेहरे की सजावट को बढ़ाता है और भारतीय सभ्यता-परंपराओं का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बन चुका हैl प्राचीन काल में टिकुली का उपयोग मुख्य रूप से राजकुमारियों और श्रेष्ठ महिलाओं द्वारा किया जाता था। यह सुंदर हस्तनिर्मित आभूषण महिलाओं की सम्मानजनक धनी संपत्ति के रूप में महत्वपूर्ण था।

टीकुली या बिंदी की प्रासंगिकता एवं महत्व प्राचीन काल से लेखों एवं पुराणों में परिलक्षित होते हैंl उदाहरणार्थ प्राचीन श्लोक बिंदी या टिकुली के संदर्भ में हैं:
“कटि-तटी-समुद्भूतां दशने तुष्टां करोति या। केशान्तेषु च दीप्तेषु प्रभा वेपिप्लुता यथा॥”- विष्णु पुराण, 2.24.20, अर्थ: “जो स्त्री अट पर सुन्दर बिंदी लगाती है, वह अपने चेहरे को और भी सुंदर बनाती है, जैसे चंदन की धूप जलने से प्रकाशित होती है।”
“तिलकलक्ष्मण गृहे मधुरं पच्यते।”- रामायण, १.२८.१०, अर्थ: “लक्ष्मण के घर में बिंदी को मधुर (मनोहर) माना जाता है।” “ललाटे चन्दनं रेखा पित्तलं शालाका तोयम्। कृत्वा मैच्छिते लक्ष्म्याः पट्टं भासेत लांचनम्॥” (शुभाष्तक, श्लोक 1) इस श्लोक में बिंदी को ‘लांचन’ के रूप में उल्लेख किया गया है, जो लक्ष्मी के लिए लगाया जाता है और उसके सौंदर्य को बढ़ाता है। “सिंदूरारुण विग्रहां त्रिनयनां माणिक्यमौलीं धारां। शुकास्यास्त्रजमुक्तादामणीं सौभाग्यवतीं भवेत्॥” (विष्णु पुराण, ५.३.१७) यह श्लोक बिंदी के संदर्भ में सौभाग्यवती महिला की महिमा का वर्णन करता है। “लालाटे या मण्डलम् तथापि भ्रमरनीलमणिभूषणं तत्त्वगौरम्। वामे कृष्णशर्मनिरस्तकुण्डलां वेणुकरं नासाग्रेऽरविन्ददलं द्विपरगं केशवं ध्यायेत्॥” (विष्णु पुराण, ५.३.१८) यह श्लोक विष्णु पुराण से है और इसमें बिंदी को भगवान कृष्ण के रूप में व्याख्या किया गया है। ये श्लोक बिंदी के प्राचीन महत्व को दर्शाते हैं और उसके संदर्भ में धार्मिक और सामाजिक महत्व को प्रकट करते हैं। उपरोक्त तथ्यों के आलोक में बिंदी या टिकुली बिहार राज्य की प्रमुख लोक कला के रूप में जानी जाती है, जो अपने कलात्मक स्वरूप के लिए प्रसिद्ध हैl आज इन्हीं टिकुली या बिंदी लोक कला के बारे में संवाद स्थापित किया जाएगाl

तिकुली कला बिहार की महत्वपूर्ण कलाओं में से एक है, जिसकी उत्पत्ति लगभग आठ सौ साल पहले हुई थी। इस कला का आदि स्रोत मुगलकाल में है, जब यह मुगल राजाओं के प्रायोजन के रूप में उभरी थी। बिहार में “तिकुली” शब्द का मतलब “बिंदी” होता है, जो भारतीय महिलाओं के मस्तक पर पहनी जाने वाली उज्ज्वल और रंगीन बिंदी को संदर्भित करता है। पारंपरिक रूप से तिकुली कला केवल बिंदियों को सजाने के लिए होती थी, जिसमें नाजुक कांच का टुकड़ा स्वर्णपत्र और मणियों से सजाया जाता था। लगभग 17वीं शताब्दी के आसपास भारतीय कारीगरों ने कांच की बड़ी शीटों को सजाना शुरू किया और इन टुकड़ों को छोटे चित्रों में बेचना शुरू किया। मुस्लिम कारीगर कांच की चादरों को हलकों में काटते थे और उन्हें सोने की पन्नी से सजाया जाता था। हिंदू कलाकारों ने इन टुकड़ों पर जटिल पैटर्न चित्रित किए। महिला कलाकार टिकुली कला के लिए पतले ब्रश और बांस के औजारों का उपयोग करती थीं। कलाकारों ने प्राकृतिक रंगों का उपयोग किया और रंगों को चिपकाने के लिए गोंद का उपयोग किया गया। मुगल साम्राज्य के अधिकारी इस कला के प्रति सहानुभूति रखते थे, लेकिन ब्रिटिश सत्ता के आगमन के साथ यह कला धीरे-धीरे लुप्त हो गई। मुगल साम्राज्य के अस्तित्व के कम होने के बाद तिकुली कला का उत्पादन धीरे-धीरे कम हो गया, लेकिन यह समाज में अपनी स्थानीय पहचान बनाए रखी। तिकुली कला के लिए महत्वपूर्ण बदलाव भी हुए जैसे कि कांच की जगह लकड़ी और रासायनिक रंग की प्रयोग की जगह सोने के पत्तों की इस्तेमाल का बदलाव। इन बदलावों के बावजूद तिकुली कला अपनी स्थिरता बनाए रखी। तिकुली कला बिहार में महिला सशक्तिकरण का प्रतीक है। आजकल टिकुली बनाने की कला को मधुबनी पेंटिंग के साथ मिलाकर सजावटी दीवार प्लेटें, कोस्टर, टेबल मैट, दीवार पर लटकाने वाली चीजें, ट्रे, पेन स्टैंड और अन्य उपयोगी वस्तुएं बनाने के लिए उपयोगिता मिली है। इस कला का उत्पादन अत्यंत कठिन और कौशल पूर्ण होता था। प्रक्रिया में कांच को पिघलाकर, आकार को काटकर, रंग जोड़ने, स्वरुप को सृजित करने और सोने के पत्तों को जोड़ने की प्रक्रिया शामिल थी। इन बिंदियों का व्यापारिक महत्व था। व्यापारी इन्हें बड़ी मात्रा में खरीदने के लिए पटना आते थे। शासकीय और शाही नारीयों ने अपनी सुंदरता को बढ़ाने के लिए इन बिंदियों को भाग्यांश के रूप में मस्तक के बीच में पहना था।

टिकुली कला की एक अहम विशेषता उसके उपकरण और तकनीकों में है। प्रारंभ में यह कला कांच की शीट पर चित्रित की जाती थी और अलंकरण के लिए सोने की पन्नी का उपयोग किया जाता था। कांच नाजुक था और इसे लंबी दूरी तक नहीं ले जाया जा सकता था, जबकि सोना बहुत महंगा था। इसलिए, कलाकारों ने लकड़ी से शुरूआत की जो बाद में हार्डबोर्ड या एमडीएफ बोर्ड पर पेंटिंग करने के लिए उपयोग किया गया। इनेमल पेंट सोने की पन्नी की एक लागत-प्रभावी विकल्प बन गया। चित्र बनाने की प्रक्रिया कुछ समय लगता है, लेकिन यह ध्यान और कुशलता से की जाती है। सबसे पहले हार्डबोर्ड फ्रेम को विभिन्न आकारों और माप में काटा जाता है। फिर कलाकार इसे इनेमल के चार-पांच परतों से लेपित करता है। प्रत्येक परत को सूखने के बाद सतह को सैंडपेपर से पॉलिश किया जाता है। कलाकार इसके बाद पेंटिंग शुरू करता है, चित्रकार चित्रकारी करने के लिए उत्तम ब्रश का प्रयोग करते है, जिसमें डबल जोरों ब्रश सबसे लोकप्रिय होता है। ब्रश अब अधिकांश व्यावसायिक रूप से उपलब्ध सिंथेटिक होते हैं। ब्रश के माध्यम से विभिन्न अलंकरण एवं अभिप्राय का अंकन करते हैंl विषय वस्तु के अनुसार रंगों का चयन तथा उनकी भराई की जाती हैl यह कला मधुबनी लोक कला के समानांतर दृष्टिगत होती है, लेकिन विषय वस्तु तथा तकनीक में भिन्नता दिखाई देती हैl

टिकुली कला शैली में और मिथिला चित्रकला में काफी अंतर होता है। मिथिला चित्रकला में प्राथमिकता पौराणिक कथाओं और धर्मिक विषयों को दी जाती है, जबकि टिकुली कला में यह सीमित नहीं होता। टिकुली कलाकार अपने चित्रों में दैनिक जीवन के तत्वों के साथ-साथ धार्मिक और पौराणिक कहानियों को भी शामिल करते हैं। इसके अलावा टिकुली कला में रंगों का उपयोग भी अधिक विविध होता है, जो कि चमकीले और आकर्षक चित्रों को बनाने में मदद करता है। ये कलाकार टिकुली कला के माध्यम से मधुबनी पेंटिंग तकनीक का उपयोग करके समाज के महिलाओं को महत्व देते हैं। इस लोक कला में कमल के फूल एक महत्वपूर्ण संदेश का प्रतीक हैं, जो सौंदर्य और सामाजिक समृद्धि को संकेत करते हैं। इन कलाकारों की कलाकृतियों में देवी-देवताओं, ग्रामीण जीवन के दृश्य और समाजिक उत्सवों का सजीव चित्रण होता है। टिकुली कला की खासियत यहाँ नहीं सिर्फ रंग और रूपकला में है, बल्कि इसकी महत्वपूर्ण विशेषता उसके मूल्यों, परम्परागत और समृद्ध सांस्कृतिक विरासत में भी है। ये कलाकार अपने काम में ध्यान से विविधता को समाहित करते हैं, जिसमें त्योहार, रीति-रिवाज, और पौराणिक कथाओं की गहरी जानकारी का अद्भुत संगम है। उनके काम में जटिलता और संवेदनशीलता का संगम है, जो इस कला को अमूल्य बनाता है। बिहार की टिकुली कला में छवियाँ बिहार के लोगों और उनके दैनिक जीवन की चित्रण हैं, जिससे इसका रूपांकन उनकी सांस्कृतिक धरोहर और विविधता को प्रतिबिंबित करता है। यहाँ पर चित्रों में ज्यामितीय अलंकरण, गणेश, मोर, पक्षी, शादियाँ, होली, कमल, लताएँ, पुष्प आकृति और अन्य रंगीन आभूषण शामिल हैं। हर चित्र अपने अनूठे कथात्मक संदेश को साझा करता है। टिकुली कला न केवल बिहार के ग्रामीण जीवन को जीवंत करती है, बल्कि पौराणिक कथाओं और लोककथाओं की छवियों के माध्यम से एक साहित्यिक अनुभव भी प्रदान करती है। उसके समृद्ध रंगों और आकृतियों का मिश्रण हमें बिहार की सांस्कृतिक धरोहर की यात्रा पर ले जाता है।

अंततः इस कला की प्रासंगिकता तथा उपयोगिता के साथ ही साथ इसका महत्व महत्वपूर्ण हैl प्राचीन कला की स्थिति तथा पुनरुत्थान महत्वपूर्ण पक्ष हैl टिकुली कला ने बिहार के स्थानीय कारीगरों के जीवन में एक नया रंग भर दिया है। इसका विलुप्त होना और पुनरुद्धार की प्रक्रिया ने दिखाया है कि कला कैसे वर्षों बाद भी फिर से उसी महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह कर सकती है, जो समाज की आत्मा को जीवंत और सक्रिय रखती है। इसका संबंध महिलाओं के साथ होने से यह कला भी महिलाओं के सामाजिक और आर्थिक स्थिति में सुधार का माध्यम बनती है, जो उन्हें अपने कौशल का प्रदर्शन करने और आजीविका कमाने का मौका प्रदान करती है। बिहार कला का सौन्दर्यपरक आकर्षण हमें उसकी अद्वितीय सांस्कृतिक विरासत का अनुभव कराती है, जो लोगों के दिलों में एक गहरा सम्बंध बनाती है। इसका प्रभाव बिहार के स्थानीय समुदायों के विकास में अत्यधिक महत्वपूर्ण है, जिससे उन्हें उत्साह और स्वाभिमान मिलता है। टिकुली कला के माध्यम से हम अपनी सांस्कृतिक धरोहर को समृद्ध करते हैं और आगे बढ़ते हैं, जबकि उसका संरक्षण हमें अपने अनुपम विरासत की महत्वता को समझने के लिए प्रेरित करता है। टिकुली कला ने बिहार के लोगों के लिए गर्व का स्रोत बन गई है और इसका प्रभाव उनके जीवन में सकारात्मक परिवर्तन लाया है। यह कला न केवल हमें रंग और सौन्दर्य का आनंद देती है, बल्कि हमें हमारी सांस्कृतिक गहनता के प्रति भी जागरूक करती है। इस प्रकार टिकुली कला न केवल एक कला है, बल्कि यह एक जीवन-शैली और संगीत है जो हमें हमारे समृद्ध इतिहास और परंपराओं की स्मृति में ले जाता है। (लेखक के निजी विचार)

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