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निर्णायक भूमिका में महिला मतदाता,,,,,,रवींद्र सिंह (मंजू सर )मैहर की कलम से।

एक संपादकीय लेखन

सुदर्शन टुडे मुकेश श्रीवास्तव ब्यूरो चीफ सतना-लोकसभा चुनाव के बाद सत्ता की बागडोर किसके हाथ में होगी, यह तो भविष्य ही बताएगा, परंतु इसमें किंचित संदेह नहीं कि महिलाएं एक महत्वपूर्ण मतदाता समूह के रूप में उभर कर आई हैं। और यह सुखद आश्चर्य है कि अब वे पुरुष मतदाताओं से एक कदम आगे बढ़कर लोकतांत्रिक व्यवस्था को सशक्त करने के दायित्व का निर्वहन कर रही हैं। रवींद्र सिंह (मंजू सर) मैहर की कलम कहती है कि दुनिया भर के अध्ययन इस अवधारणा को स्थापित करते आए हैं कि ‘सामाजिक-आर्थिक समानता महिलाओं को मतदान केंद्रों तक लेकर जाती है।’ साफ है कि भारत बहुत हद तक लैंगिक असमानता की खाई को पाट चुका है, क्योंकि मतदान केंद्रों तक वे महिलाएं नहीं पहुंच सकतीं, जिनमें आत्म-सशक्तीकरण का अभाव हो।आत्म-सशक्तीकरण का प्रत्यक्ष संबंध लैंगिक समानता से है। भारतीय महिलाएं सशक्त वोट बैंक के रूप में उभरेंगी, ‘चुनाव में बड़ी हिस्सेदारी रखने वाले दल घोषणा पत्रों और उम्मीदवारों के चयन में गृहिणियों को खुश रखने के लिए हरसंभव प्रयास करेंगे।’

आज तो कोई भी दल महिला मतदाताओं की अनदेखी का जोखिम नहीं उठा सकता, क्योंकि वे जान चुके हैं कि चाहे बात निरक्षर महिला की हो या उच्च शिक्षित की, चाहे प्रश्न ग्रामीण घरेलू महिला का हो या फिर नौकरीपेशा शहरी महिला का, वे भलीभांति जानती हैं कि उन्हें किसे और क्यों बोट देना है? जो भी दल उनकी पीड़ा को समझेगा या उनके हितों को साधेगा, उनका बोट उसे ही जाएगा। रवींद्र सिंह (मंजू सर) मैहर की कलम कहती है कि इस तथ्य की पुष्टि 2015 के बिहार विधानसभा चुनावों से हुई थी। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने तब विधानसभा चुनाव से चार महीने पहले शराबबंदी से जुड़ी महिलाओं की मांग पर कहा था कि अगर इस बार हमारी सरकार बनी तो हम शराब बंद करेंगे। इस वादे के बाद हुए चुनावों में जद यू की भागीदारी वाले महागठबंधन ने 178 सीटें जीतीं। करीब 60.57 प्रतिशत महिलाओं ने अपने घरों से निकल कर वोट दिया, जो पुरुषों के मुकाबले करीब सात प्रतिशत ज्यादा था। महिलाओं के हितों को साधने में ममता बनर्जी भी पीछे नहीं रहीं। महिला सरकारी कर्मचारियों के लिए मुआवजे में वृद्धि, साइकिल

अब यह धारणा सही नहीं कि भारतीय महिलाएं घर के पुरुष सदस्यों के सोच के अनुरूप मतदान करती हैं

अपने हितों के प्रति सचेत है महिलाएं

योजना जैसी नीतियों ने उन्हें महिला समर्थक के रूप में अपनी छवि बनाने में काफी मदद की। मेरी कलम के अनुसार अभी कुछ समय पहले मध्य प्रदेश विधानसभा चुनावों में भाजपा की जीत में ‘लाड़ली बहन योजना’ को एक ट्रंप कार्ड के रूप में देखा गया।हमें यह समझना होगा कि महिलाएं भ्रामक भावनाओं में बहने को तैयार नहीं हैं। यह बात कोरा मिथक है कि किसी एक राजनीतिक दल की हवा उनके मन को प्रभावित कर सकती है। यह अवश्य स्वीकार किया जाना चाहिए कि महिलाएं

उस नेता या दल का चुनाव करती हैं, जिससे उनका भावनात्मक जुड़ाव हो जाए और उन्हें यह भरोसा हो कि वे उनके हितैषी हैं। संभवतः अंतरराष्ट्रीय मुद्दे और बाजार के उतार-चढ़ाव आम भारतीय महिलाओं के विमर्श के विषय नहीं हैं, परंतु उनकी जमीनी जरूरतों को समझने वाला नेतृत्व उनकी प्राथमिकता में होता है। वे व्यक्तिगत और संस्थागत, दोनों स्तरों पर संचालित होने वाले अनेक कारकों से प्रभावित होती हैं। पांच दशकों के राज्य और राष्ट्रीय चुनावों में पुरुष और महिला मतदान के आंकड़ों का विश्लेषण करते हुए पारंपरिक रूप से पिछड़े और अपेक्षाकृत अधिक विकसित भारतीय राज्यों, दोनों में महिला चेतना और आत्म-सशक्तीकरण

की परिकल्पना का सिद्धांत दृष्टिगोचर होता है।यह धारणा आंकड़ों और चुनावी परिणामों से मेल नहीं खाती कि ‘भारतीय महिलाएं घर के पुरुष सदस्यों के सोच के अनुरूप मतदान करती हैं।’ विभिन्न शोधों में महिला मतदाताओं ने दबे स्वर

में यह स्वीकार किया कि वे बोट देते समय अपने परिवार के निर्णय को ध्यान में नहीं रखतीं। मतदान स्वायत्तता बीते एक दशक के लोकसभा चुनाव के परिणामों में भी देखी जा सकती है। जो महिलाएं कुछ दशक पहले तक ‘मिसिंग वूमेन’ मानी जाती थीं, वे अब ‘महिला-इन-द-मिडिल’ में सम्मिलित हो गई हैं। बेहतर शिक्षा, बढ़ती जागरूकता और आर्थिक स्वावलंबन ने आधी आबादी की निर्णय क्षमता को बल दिया है। रवींद्र सिंह (मंजू सर) मैहर की कलम कहती है कि महिलाएं बेहतर तरीके से समझ चुकी हैं कि उनके लिए राज्य तथा केंद्र सरकार नित्य नवीन योजनाएं लाने को तत्पर हैं। इसके चलते उन्होंने अपने हितों को साधना सोख लिया है। भारतीय स्टेट बैंक के इकोनमिक रिसर्च डिपार्टमेंट की आम चुनावों में महिला मतदाताओं की भूमिका से जुड़ी एक रिपोर्ट यह बताती है कि स्टैंडअप इंडिया, मुद्रा, पीएम जीवन ज्योति बीमा जैसी कई सरकारी योजनाओं में महिलाओं की हिस्सेदारी बढ़ने के साथ गुजरात, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, पंजाब, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, छत्तीसगढ़, उत्तराखंड और तेलंगाना में उनकी चुनावी भागीदारी भी बढ़ रही है। इस रिपोर्ट से यह भी ज्ञात होता है कि 2024 में मतदान का आंकड़ा 68 करोड़ तक पहुंच सकता है, जिसमें महिलाओं की संख्या 32 करोड़ हो सकती है। 2029 में 36 करोड़ पुरुष मतदाताओं के मुकाबले महिला मतदाता 37 करोड़ हो सकती हैं।

मतदाता स्थायी रूप से कभी भी किसी एक प्रवाह में नहीं बहते, परंतु बात जब महिला वोटर की हो तो वे अपनी निष्ठा शीघ्र नहीं बदलतीं, विशेषकर तब जब बात उनकी अस्मिता और सुरक्षा की हो। उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव इसका उदाहरण हैं। चुनावी प्रक्रिया में महिलाओं की भागीदारी भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था की परिपक्वता और प्रभावकारिता का एक महत्वपूर्ण संकेतक है। इसे लोकतांत्रिक ढांचे में महिलाओं के लिए प्रदान की गई स्वतंत्रता के रूप में देखा जा सकता है।

मुकेश श्रीवास्तव ब्यूरो चीफ सतना

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