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Satnaमध्य प्रदेश

सद्गुणों की पूँजी बढ़ाते रहें,,,,,,,रवींद्र सिंह (मंजू सर )मैहर की कलम से।

 

 

 

सुदर्शन टुडे सतना

मनुष्य के पास सबसे बड़ी पूँजी सद्गुणों की है। जिसके पास जितने सद्‌गुण हैं, वह उतना ही बड़ा अमीर है। रुपया के बदले बाजार में हर चीज खरीदी जा सकती है। इसी प्रकार सद्गुणों की पूँजी से किसी भी दिशा में अभीष्ट की प्राप्ति की जा सकती है। रवींद्र सिंह (मंजू सर) मैहर की कलम कहती है कि गुणहीन व्यक्ति अपनी व्यर्थता, निरर्थकता के कारण सबकी दृष्टि में हीन और हेय बने रहते हैं, कोई उनकी पूछ नहीं करता, उनकी ओर ध्यान नहीं देता, बेचारे अपनी जिंदगी जीते और अपनी मौत मरते रहते हैं। ऐसे लोगों के लिए किसी प्रकार जिंदगी के दिन काट लेना ही पर्याप्त होता है। ये लोगों की दृष्टि में उपहास या दया के पात्र बने रहते हैं। किसी महत्त्व के कार्य में उनकी पूछ नहीं होती,सदा पीछे ही धकेले जाते रहते हैं।दुर्गुणी व्यक्ति बहुधा स्वार्थी होते हैं। वे दूसरों से चाहते तो बहुत हैं पर बदले में देने के लिए उनके पास कुछ नहीं होता।इसलिए डरा- धमकाकर अपना प्रयोजन सिद्ध करने की कोशिश करते हैं। गुंडे, उद्दंड, उच्छृंखल, चोर, डाकू, लुटेरे, झगड़ालू प्रकृति के लोग अपनी हानि पहुँचाने की क्षमता का प्रदर्शन करके दुर्बल मन वालों को आतंकित कर लेते हैं और फिर उनसे अपना स्वार्थ साधने की चेष्टा करते हैं। मेरी कलम कहती है कि काठ की हाँड़ी देर तक नहीं चढ़ती। सभी लोग उनके विरोधी होते हैं और घृणा के भाव रखते हैं। जब भी अवसर मिलता है प्रतिशोध ले लिया जाता है। यदि ये दुर्गुणी लोग किसी मुसीबत में फंस जाएँ, तब तो हर कोई घी के दीपक जलाता है और यह प्रयत्न करता है कि इसे अधिक से अधिक मुसीबत उठानी पड़े । दुर्गुणी का कभी कोई सच्चा मित्र नहीं हो सकता क्योंकि किसी के मन में उसके प्रति श्रद्धा या सद्भावना नहीं होती। इसके बिना मैत्री की जड़ कभी गहरी नहीं हो सकती ।प्रगति अपने बलबूते पर होती है। रवींद्र सिंह (मंजू सर) मैहर की कलम कहती है कि सच्ची मैत्री और सहानुभूति तो सद्गुण वालों में ही मिलती है। दुर्गुणी तो वह सब कुछ खो बैठता है। डरा धमकाकर एक बार किसी से कुछ काम करा भी लिया जाए तो भी वह निरंतर कैसे संभव हो सकता है? दूसरों की सहानुभूति और सहायता से वंचित रहने के कारण ये लोग किसी महत्वपूर्ण सफलता के अधिकारी नहीं बन पाते । सब ओर से घृणा की वर्षा होने के कारण उनकी आत्मा भीतर ही भीतर से दबी हुई सी, मरी हुई सी, चोर की तरह भय और लज्जा से घिरी हुई सी बनी रहती है।जिसका अंत:करण लज्जा और संकोच के भार से दब सा गया है, उसके लिए प्रगति के सभी द्वार अवरुद्ध हो जाते हैं ।

मुकेश श्रीवास्तव सतना

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