दमोह/बुंदेलखंड
दीपावली की धूम तो पूरी दुनिया में होती है, लेकिन एक इलाका ऐसा भी है जहां दिवाली के एक दिन बाद दिवारी नृत्य की बहुत ही पुरानी परंपरा चली आ रही है. लक्ष्मी पूजा के अगले दिन यह गोवर्धन पूजा पर मौन परमा से जुड़ी है. इस बार सूर्य ग्रहण के चलते गोवर्धन पूजा दिवाली के अगले दिन की जगह एक दिन बाद यानि बुधवार होगी हुई. इस दिन पूरे बुंदेलखंड में मौनिया नृत्य की टोलियां गांव गांव भ्रमण करते हुए अपनी कृष्ण भक्ति और प्रकृति पूजक सनातन परंपरा को दर्शाती हैं.गोवंश के खो जाने से रूठकर मौन हुए थे श्रीकृष्ण तभी से ग्वालों ने शुरू की परंपरा
‘दिवारी’ लोकनृत्य का विष्णु के श्रीश् दीपावली की धूम तो पूरी दुनिया में होती है, लेकिन एक इलाका ऐसा भी है जहां दिवाली के एक दिन बाद दिवारी नृत्य की बहुत ही पुरानी परंपरा चली आ रही है. लक्ष्मी पूजा के अगले दिन यह गोवर्धन पूजा पर मौन परमा से जुड़ी है. इस बार सूर्य ग्रहण के चलते गोवर्धन पूजा दिवाली के अगले दिन की जगह एक दिन बाद यानी बुधवार होगी होगी, लेकिन अक्सर दीपावली के अगले दिन ही गोवर्धन और मौनिया डांस की परंपरा निभाई जाती रही है. इस दिन पूरे बुंदेलखंड में मौनिया नृत्य की टोलियां गांव गांव भ्रमण करती हैं. मौनी नर्तकों के 7 गांव भ्रमण करने की ये परंपरा हजारों साल पुरानी है. इसे गोवर्धन पर्वत उठाने के बाद भगवान कृष्ण की भक्ति में प्रकृति पूजक परम्परा के तौर पर मनाया जाता है, जिसमें दिवारी गीत शामिल होते हैं. इसे दिवारी नृत्य भी कहते हैं. इतिहासकार बताते हैं कि मौनिया नर्तकों की टीम 7 गांव जाकर 13 साल तक नृत्य करती है.सके बाद इसका विसर्जन कराते हुए मौन तपस्या का समापन करा दिया जाता है.मोनिया बुंदेलखंड के लगभग सभी जिलों में सबसे फेमस और पारंपरिक नृत्य है. मौनी सैरा ऐसा लोकनृत्य है जिसका इतिहास हजारों साल पुराना है. यह पूरी तरह कृष्ण भक्ति को समर्पित है, जिसमें प्रकृति और गोवंश के प्रति संरक्षण को मैसेज दिया जाता है. गोवर्धन पूजा को लोग अन्नकूट पूजा के नाम से भी जानते हैं. दिवाली के अगले दिन गोवर्धन पूजा होती है. दीपावली की तरह ही बुंदेलखंड में दीपावली के एक दिन बाद गोवर्धन पूजा का भी महत्व है. इस दिन अधिकांश गांवों में कई टोलियां ग्वालों के भेष में निकलती हैं. सभी गाय बछड़े के संरक्षण के लिए मौनिया नृत्य करते हुए साज बाज और पारंपरिक गीतों की धुन पर नाचते हुए निकलते हैं.गोवंश के खो जाने से रूठकर मौन हुए थे श्रीकृष्ण, तभी से ग्वालों ने शुरू की परंपरा
बुंदेलखंड के इतिहासकार शैलेंद्र सिंह बुंदेला बताते हैं कि प्राचीन मान्यता के अनुसार जब श्रीकृष्ण यमुना नदी के किनारे बैठे हुए थे तब उनकी सारी गायें खो जाती हैं. अपनी गायों को न पाकर भगवान श्रीकृष्ण दुखी होकर मौन हो गए. इसके बाद भगवान कृष्ण के सभी ग्वाल दोस्त परेशान होने लगे. जब ग्वालों ने सभी गायों को तलाश लिया और उन्हें लेकर लाये तब भगवान कृष्ण ने अपना मौन तोड़ा. इसी मान्यता के अनुरूप श्रीकृष्ण के भक्त गांव गांव से मौन व्रत रखकर दीपावली के एक दिन बाद मौन परमा के दिन इस नृत्य को करते हुए 7 गांव की परिक्रमा लगाते हैं और मंदिर.मंदिर जाकर भगवान श्रीकृष्ण के दर्शन करते हैं.
मोनिया बुंदेलखंड के लगभग सभी जिलों में सबसे फेमस और पारंपरिक नृत्य है
प्रसिद्ध इतिहासकार हरगोविंद कुशवाहा बताते हैं कि मौनियां बुंदेलखंड का सबसे प्राचीन और प्रमुख लोकनृत्य है. इसमें 7 गांव में 13 साल तक नाच गाकर परंपरा निभाई जाती है, ताकि प्रकृति की रक्षा और गाय बैल के संरक्षण हो. इसके पहले इसकी टोली में शामिल ग्वाले मौन साधना की शपथ लेते हैं. फिर उनकी टोली निकलती है. इसमें एक नेता होता है जिसे बरेदी कहते हैं. यह टोलियां जो गीत गाते हुए चलती हैं उनमें शृंगार, वैराग्य, नीति, कृष्ण, महाभारत, धर्म और दिवारी गाई जाती है.
दिवारी लोकनृत्य का विष्णु के वामन अवतार से भी जुड़ा है इतिहास
दिवारी एक परंपरागत लोकनृत्य है, जिसे भक्त प्रहलाद के नाती राजा बलि के वंश से जोड़कर देखा जाता है. बुंदेलखंड के ऐरच में ही भक्त प्रहलाद के राज का इतिहास बताया जाता है. यहां प्रहलाद के पुत्र वैरोचन वैरोचल थे जिनका पुत्र ही आगे चलकर बलि हुआ. यहां से भगवान विष्णु के वामन अवतार कर कथा प्रचलित है. इतिहासकार हरगोविंद कुशवाहा बताते हैं कि राजा बलि को छलने के लिए ही वामन अवतार लिया गया था. इसके पहले वैरोचन की पत्नी जब सती हो रही थीं तो उन्हें भगवान ने दर्शन देकर कहा था कि आपके होने वाले पुत्र के सामने हम स्वयं भिक्षा मांग ने के लिए आएंगे. इसे सुनकर सती होने के लिए पहुंची उनकी पत्नी ने दिवारी गायन शुरू किया था. इसमें उन्होंने गाया था. ‘भली भई सो ना जरी अरे वैरोचन के साथ, मेरे सुत के सामने कऊं हरि पसारे हाथ.’ इस गीत के साथ ही मौनिया नृत्य शुरू कर देते हैं जो पूरे 12 घंटे तक 7 ग्रामों में चलता है. हरगोविंद बताते हैं कि यह 13 साल तक चलता है और उसके बाद मौनी दशाश्वमेध घाट पर इसका विसर्जन कर देते हैं.