सुदर्शन टुडे पंकज जैन आष्टा
उक्त उद्गार दिव्योदय जैन तीर्थ किला मंदिर में विराजमान पूज्य मुनि श्री मुनि सागर जी महाराज ने व्यक्त किये, दशलक्षण पर्व एक नैमित्तिक पर्व है जिसकी पूजा अर्चना कर आप लोगो ने लाभ लिया है बड़े ही सौभाग्य की बात है हमारे कर्मो की निर्जरा करने में बड़े ही सहभागी होते है ये पर्व।उत्तम तप का दिन है तपे बिना मिट्टी भी योग्यता को नही पाती है उसी प्रकार हमारी आत्मा भी तपे बिना अपना स्थान नही पाती है, हमारे आचार्यो ने कहा कि तन मिला तुम करो करो कर्म का नाश रवि शशि से भी अधिक तुम में दिव्य प्रकाश
अंतरंग ओर बहिरंग दो प्रकार से तप होता है बहिरंग से तो सभी तपते है अंतरंग से बहुत विरले जीव ही तप पाते है,मूल उद्देश्य अपने अदंर के विकारों को तज कर अपनी आत्मा को तप करने का नाम ही मूल तप की परिभाषा है,अनादि काल से हमने बहिरंग तप को बहुत तपा है पर अंतरंग से नही तपा तभी तो यही है,
संयम के माध्यम से सामान्य पुण्य होकर तप
कर्म पाषाण की भांति है तो तप
तपना अनिवार्य है तपना कितना,
इसका भी ध्यान रहे, कितनी इस शरीर की क्षमता है उसी प्रकार तपना होता है,ष्षक्ति से अधिक तपना भी शरीर व्याधि को प्राप्त होता है,तप निर्जरा का कारण है,स्वर्ग की सम्पदा भी तपश्वि को आसानी से मिल जाती है
तप भी इतना करना कि शरीर को कोई बाधा नही आने पाए इतना ध्यान रखे,भावो की निर्मल सरिता में अवगाहन करना है या
गुरु भक्ति के माध्यम से गुरु जी से हम प्रायश्चित मांगते है,वह भी एक प्रकार का तप है,आशीर्वाद से ही तप हो जाता है
बाल तप,अकाम निर्जरा,
लोगो ने चाँद में आचार्य श्री को देखा श्रावको की भावना है ,भावना भव नाशिनी,यह प्रशस्त राग है,
चाँद में आचार्य श्री नही चाँद उनको ढूंढ रहा है वे तो मध्यलोक में थे ही
अब तो चाँद सूरज से भी ऊपर पहुँच गए है आचार्य श्री सम्यकदृष्टि की भावना हम दो हमारे दो तक नही होती है,पूरे राष्ट्र को अपना कुटुम्ब माना था आचार्य श्री ने,
हम आचार्य श्री जैसा बन नही सकते पर उन जैसी बोली तो बोल सकते है
उन्होंने जो मार्ग बताया उसे अंगीकार करना हमारा नैतिक कर्तव्य है
ये हमारा ये उनका यह ओछी बुद्धि हम तुम में होती है पर आचार्य श्री की सोच थी हम सभी के सभी हमारे तभी तो तभी तो उनके जाने से पूरी दुनिया ने
भले ही तन चला गया मन चेतन में ही गया है,