हरदोई।शिव सत्संग मण्डल के केन्द्रीय संयोजक अम्बरीष कुमार सक्सेना के अनुसार कथा सम्राट और आधुनिक हिन्दी साहित्य के पितामह मुंशी प्रेमचंद को आम आदमी का साहित्यकार कहा जाता है। चूंकि उनकी लगभग सभी कहानियां आम जीवन और उसके सरोकारों से ही जुड़ी होती थी, इसीलिए उनके सबसे ज्यादा पाठक आम लोग रहे हैं। दरअसल उन्होंने अपने सम्पूर्ण साहित्य लेखन में एक आम गरीब आदमी की पीड़ा को न केवल समझा बल्कि अपनी कहानियों और उपन्यासों के जरिये उसका निदान बताने का प्रयास भी किया। उन्होंने अपनी लगभग सभी रचनाओं में आम आदमी की भावनाओं, उनकी परिस्थितियों, समस्याओं तथा संवेदनाओं का मार्मिक शब्दांकन किया।
प्रेमचन्द उर्दू का संस्कार लेकर हिन्दी में आए थे और हिन्दी के महान लेखक बने। हिन्दी को अपना खास मुहावरा और खुलापन दिया। कहानी और उपन्यास दोनो में युगान्तरकारी परिवर्तन किए। उन्होने साहित्य में सामयिकता प्रबल आग्रह स्थापित किया। आम आदमी को उन्होंने अपनी रचनाओं का विषय बनाया और उसकी समस्याओं पर खुलकर कलम चलाते हुए उन्हें साहित्य के नायकों के पद पर आसीन किया। प्रेमचंद से पहले हिंदी साहित्य राजा-रानी के किस्सों, रहस्य-रोमांच में उलझा हुआ था। प्रेमचंद ने साहित्य को सच्चाई के धरातल पर उतारा। उन्होंने जीवन और कालखंड की सच्चाई को पन्ने पर उतारा। वे सांप्रदायिकता, भ्रष्टाचार, ज़मींदारी, कर्ज़खोरी, ग़रीबी, उपनिवेशवाद पर आजीवन लिखते रहे। प्रेमचन्द की ज़्यादातर रचनाएँ उनकी ही ग़रीबी और दैन्यता की कहानी कहती है। ये भी गलत नहीं है कि वे आम भारतीय के रचनाकार थे। उनकी रचनाओं में वे नायक हुए, जिसे भारतीय समाज अछूत और घृणित समझा था। उन्होंने सरल, सहज और आम बोल-चाल की भाषा का उपयोग किया और अपने प्रगतिशील विचारों को दृढ़ता से तर्क देते हुए समाज के सामने प्रस्तुत किया। 1936 में प्रगतिशील लेखक संघ के पहले सम्मेलन की अध्यक्षता करते हुए उन्होंने कहा कि लेखक स्वभाव से प्रगतिशील होता है और जो ऐसा नहीं है वह लेखक नहीं है। प्रेमचंद हिन्दी साहित्य के युग प्रवर्तक हैं। उन्होंने हिन्दी कहानी में आदर्शोन्मुख यथार्थवाद की एक नई परंपरा शुरू की।
‘उपन्यास सम्राट’ के विशेषण से उन्हें शरद चंद्र चट्टोपाध्याय ने नवाजा था। लेकिन यह उपाधि मिलने के बाद भी पाठकों के बीच वर्तमान में भी उनका कहानीकार का रूप ही स्वीकारा और सराहा जाता है। प्रेमचंद ऐसे कहानीकार और साहित्यकार थे, जिन्हें आज भी सबसे ज्यादा पढ़ा जाता रहा है। उन्हें ‘हिन्दी साहित्य का माइलस्टोन’ भी कहा जाता है। आज भी हिन्दी भाषी दिग्गज लेखकों और साहित्यकारों का यही मानना है कि मुंशी प्रेमचंद जैसा कलमकार हिन्दी साहित्य में न आजतक कोई हुआ है और न होगा। अपनी रचनाओं के माध्यम से उन्होंने समाज को रूढ़िवादी परम्पराओं और कुरीतियों से निकालने का प्रयास किया।
मुंशी प्रेमचंद ने अपने लेखन के माध्यम से न सिर्फ दासता के विरुद्ध आवाज उठाई बल्कि लेखकों के उत्पीड़न के विरुद्ध भी सक्रिय भूमिका निभाई। उन्होंने उपन्यासों और कहानियों के अलावा नाटक, समीक्षा, लेख, संस्मरण इत्यादि कई विधाओं में साहित्य सृजन किया। हालांकि कम ही लोग यह बात जानते हैं कि जो मुंशी प्रेमचंद हिन्दी लेखन के लिए इतने विख्यात रहे हैं, उन्होंने अपने लेखन की शुरुआत उर्दू से की थी। अपना पहला साहित्यिक कार्य उन्होंने गोरखपुर से उर्दू में शुरू किया था और 1909 में कानपुर के ‘जमाना प्रेस’ से उर्दू में ही उनका पहला कहानी-संग्रह ‘सोज ए वतन’ प्रकाशित हुआ था, जिसकी सभी प्रतियां ब्रिटिश सरकार द्वारा जब्त कर ली गई थी। उस समय में वे उर्दू में ‘नवाब राय’ के नाम से लिखते थे। उनका लिखा कहानी संग्रह जब्त करने के बाद ‘जमाना’ के सम्पादक मुंशी दयानारायण ने उन्हें परामर्श दिया कि भविष्य में अंग्रेज सरकार की नाराजगी से बचने के लिए नवाब राय के बजाय नए उपनाम ‘प्रेमचंद’ के नाम से लिखना शुरू करें। इस प्रकार वे नवाब राय से प्रेमचंद बन गए। सुमित्रानन्दन पंत ने प्रेमचंद के बारे में कहा था कि प्रेमचंद ने नवीन भारतीयता और नवीन राष्ट्रीयता का समुज्ज्वल आदर्श प्रस्तुत कर महात्मा गांधी के समान ही देश का पथ प्रदर्शन किया है।
उत्तर प्रदेश में वाराणसी के लमही गांव के मुंशी अजायबलाल के घर 31 जुलाई 1880 को जन्मे धनपत राय श्रीवास्तव उर्फ मुंशी प्रेमचंद की हाल ही में हमने 141वीं जयंती मनाई है। उन दिनों उनके परिवार के पास केवल छह बीघा जमीन ही थी लेकिन बड़ा परिवार होने के कारण घर की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं थी। कायस्थ कुल के धनपत राय का बचपन खेत-खलिहानों में ही बीता। हालांकि प्रेमचंद एक वकील बनना चाहते थे लेकिन आर्थिक तंगी के चलते उनका वह सपना पूरा नहीं हो सका। जब वे केवल आठ वर्ष के थे, तभी उनके सिर से मां का साया उठ गया था। पिता ने कुछ वर्षों बाद दूसरी शादी कर ली और महज 15 साल की आयु में उनका विवाह भी उम्र में उनसे बड़ी लड़की के साथ करा दिया। प्रेमचंद उसे अपने जीवन का सबसे दुखद अनुभव मानते रहे। इस बारे में उन्होंने खुद लिखा भी कि वह उम्र में मुझसे बड़ी थी और जब मैंने उसकी सूरत देखी तो मेरा खून सूख गया था, उसकी जुबान भी मीठी नहीं थी। घर में सौतेली मां भी उनके साथ अच्छा व्यवहार नहीं करती थी। ऐसी ही कठिन परिस्थितियों में एक दिन पिता भी दुनिया को अलविदा कह गए। आर्थिक तंगी के उस दौर में पत्नी भी घर छोड़कर मायके चली गई।
मुंशी प्रेमचंद विधवा विवाह के पक्षधर थे और इसी कारण उन्होंने पहली पत्नी के निधन के बाद समाज के विरुद्ध जाकर वर्ष 1905 में 25 साल की आयु में शिवरानी नामक एक बाल विधवा से विवाह किया, जिसके बाद उनकी आर्थिक और पारिवारिक स्थितियों में बदलाव आया।
एक दिन वे बालेमियां मैदान में महात्मा गांधी का भाषण सुनने गए और उनके विचारों से इस कदर प्रभावित हुए कि उन्होंने ब्रिटिश सरकार की सरकारी नौकरी से त्यागपत्र दे दिया और उसके बाद पूरी तरह से स्वतंत्र लेखन में जुट गए। अपने जीवनकाल में मुंशी प्रेमचंद ने कुल 15 उपन्यास, 300 से अधिक कहानियां, 3 नाटक, 10 अनुवाद, 7 बाल पुस्तकें और हजारों की संख्या में लेखों व संस्मरणों की रचना की। उनके चर्चित उपन्यासों में बाजार-ए-हुस्न (उर्दू में), गोदान, कर्मभूमि, गबन, सेवा सदन, कायाकल्प, मनोरमा, निर्मला, प्रतिज्ञा प्रेमाश्रम, रंगभूमि, वरदान, प्रेमा इत्यादि और कहानियों में पूस की रात, नमक का दरोगा, बूढ़ी काकी, कफन, मंत्र, नशा, शतरंज के खिलाड़ी, आत्माराम, बड़े भाईसाहब, बड़े घर की बेटी, उधार की घड़ी, जुर्माना इत्यादि बहुत प्रसिद्ध रही। अपना अंतिम कालजयी उपन्यास ‘गोदान’ उन्होंने वर्ष 1936 में लिखा, जो बेहद चर्चित रहा और आज भी आधुनिक क्लासिक माना जाता है।
प्रेमचंद एक क्रांतिकारी रचनाकार थे।उन्होंने समाज की समस्याओं का सुंदर चित्रण किया।इसीलिए वह हिंदी साहित्य के बड़े विमर्श बने। सन 1934 में उनकी पहली फिल्म ‘मिल मजदूर’ रिलीज भी हुई, जिसमें कामकाजी वर्ग की समस्याओं को इतनी मजबूती से उठाया गया था कि अंग्रेज सरकार ने घबराकर फिल्म के प्रदर्शन पर पाबंदी लगा दी थी। उसके बाद प्रेमचंद समझ गए थे कि फिल्म इंडस्ट्री में उनकी दाल नहीं गलने वाली इसीलिए वे निराश होकर 1935 में वापस वाराणसी लौट आए। प्रेमचंद की कुछ कहानियों पर उनके निधन के बाद फिल्में भी बनी। 1938 में उनके एक उपन्यास ‘सेवासदन’ पर फिल्म बनी। 1963 में ‘गोदान’ और 1966 में ‘गबन’ उपन्यास पर फिल्में बनी। 1977 में उनकी कहानी ‘कफन’ पर फिल्मकार मृणाल सेन द्वारा ‘ओका ऊरी कथा’ नामक तेलुगू फिल्म बनाई गई, जिसे सर्वश्रेष्ठ तेलुगू फिल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला। उनकी दो कहानियों 1977 में उनकी एक कहानी ‘शतरंज के खिलाड़ी’ और 1981 में ‘सद्गति’ पर बॉलीवुड फिल्मकार सत्यजित राय ने फिल्में बनाई। 1980 में उनके उपन्यास ‘निर्मला’ पर एक टीवी धारावाहिक बना, जो काफी लोकप्रिय हुआ था।
प्रेमचंद की स्मृति में भारतीय डाकतार विभाग की ओर से 31 जुलाई 1980 को उनकी जन्मशती के अवसर पर 30 पैसे मूल्य का एक डाक टिकट जारी किया गया। गोरखपुर के जिस स्कूल में वे शिक्षक थे, वहाँ प्रेमचंद साहित्य संस्थान की स्थापना की गई है। इसके बरामदे में एक भित्तिलेख है। यहाँ उनसे संबंधित वस्तुओं का एक संग्रहालय भी है। जहाँ उनकी एक वक्षप्रतिमा भी है। सरकार की ओर से वाराणसी से लगे लमही गाँव में प्रेमचंद के नाम पर एक स्मारक तथा शोध एवं अध्ययन संस्थान बनाया गया। प्रेमचंद की पत्नी शिवरानी देवी ने प्रेमचंद घर में नाम से उनकी जीवनी लिखी और उनके व्यक्तित्व के उस हिस्से को उजागर किया है, जिससे लोग अनभिज्ञ थे। यह पुस्तक 1944 में पहली बार प्रकाशित हुई थी, लेकिन साहित्य के क्षेत्र में इसके महत्व का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि इसे दुबारा सन 2005 में संशोधित करके प्रकाशित की गई, इस काम को उनके ही नाती प्रबोध कुमार ने अंजाम दिया। इसका अंग्रेज़ी व हसन मंज़र का किया हुआ उर्दू अनुवाद भी प्रकाशित हुआ। उनके ही बेटे अमृत राय ने कलम का सिपाही नाम से पिता की जीवनी लिखी है। उनकी सभी पुस्तकों के अंग्रेज़ी व उर्दू रूपांतर तो हुए ही हैं, चीनी, रूसी आदि अनेक विदेशी भाषाओं में उनकी कहानियाँ लोकप्रिय हुई हैं।
08 अक्तूबर 1936 को हिन्दी साहित्य जगत में आत्मस्वरूपस्थ हो चिरनिद्रा में लीन हो गए।
महान उपन्यासकार और कहानीकार मुंशी प्रेमचंद की जयंती हर साल 31 जुलाई को मनाई जाती है। प्रेमचंद की कहानियाँ समाज की सच्चाई का सामना करती हैं और सत्य, न्याय और निष्ठा के महत्व को रेखांकित करती हैं। उनकी कहानियों का उद्देश्य राष्ट्रीय और सामाजिक मुद्दों के बारे में जनता के बीच जागरूकता पैदा करना था।उनका अधिकांश लेखन भ्रष्टाचार, बाल-विधवा, वेश्यावृत्ति, सामंती व्यवस्था, गरीबी, उपनिवेशवाद जैसे विषय के अंतर्गत है।वह सम्पूर्ण समाज के लिए आज भी प्रेरक व्यक्तित्व हैं।