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हिमाचल की कला-संस्कृति का प्रतीक: बसोहली लोककला शैली 

डॉ राजकुमार पांडेय (कला समीक्षक) देव भूमि उत्तराखंड, विश्वविद्यालय. 

जिला ब्यूरो चीफ आनन्द साहू

हिमाचल प्रदेश अपनी प्राकृतिक सुंदरता और विविध सांस्कृतिक विरासत के लिए प्रसिद्ध है। यहां की भव्य पहाड़ियों ने हमेशा से लोगों को प्रेरित किया हैंl यहां का जीवन-शैली और संस्कृति धरोहर शोभनीय है। हिमाचल प्रदेश की संस्कृति बहुभाषी और बहुधर्मी है, जो इसे सांस्कृतिक विरासत का महत्वपूर्ण केंद्र बनाता है। राज्य में विभिन्न जातियों और समुदायों के प्रति समर्पण का उदाहरण देखने को मिलता है जैसे हिंदू, बौद्ध, सिख और मुस्लिम समुदाय शामिल हैं, जो इसे धार्मिक एकता का प्रतीक बनाता है। हिमाचल प्रदेश की भाषाओं की विविधता भी इसे और समृद्ध बनाती है। हिंदी के अलावा यहां की पहाड़ी भाषाएँ जैसे कि कांडी, चम्बा तथा कुलू भाषा उनकी समृद्ध विरासत को दर्शाती हैं। हिमाचल प्रदेश की कला और इतिहास भी उसकी सांस्कृतिक पहचान का महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। यहां के मंदिर, गुफाएं व पहाड़ी नृत्य-गीत स्थानीय कलाकारों की कला का प्रतीक हैं। इस प्राचीन राज्य में विविधता, सामृद्ध्य और सांस्कृतिक विरासत की गहरी जड़ें हैं, जो इसे एक दर्शनीय पर्यटक स्थल बनाती है। हिमाचल प्रदेश न केवल अपनी प्राकृतिक संपदाओं से परिपूर्ण है, बल्कि उसकी सांस्कृतिक विविधता भी यहां के पर्यटकों को आकर्षित करती है। प्रदेश के त्योहार, मेले और उत्सव रंग-बिरंगे और उत्साह भरे माहौल में मनाए जाते हैं, जो हिमाचली जनता के लिए एक अनूठे अनुभव प्रदान करते हैं। भौगोलिक दृष्टि के कारण इसमें विभिन्नता भी दिखाई देती है! ऊपरी क्षेत्र के जिलों में विभिन्न मेले और त्योहार मनाए जाते हैं। कुल्लू दशहरा, मंडी का शिवरात्रि मेला, सोलन का शूलिनी मेला, चंबा का मिंजर मेला, सिरमौर की रेणुका मेला, रामपुर का लवी व्यापार मेला, कांगड़ा की व्रजेश्वरी मेला, ज्वालामुखी का मेला, सुजानपुर टीरा का होली मेला, बिलासपुर की नैना देवी मेला इनमें से कुछ प्रमुख हैं। निचले क्षेत्रों में भी ऊना जिले में पीपलो मेला, भरोली भगौर मेला, मैरी गुरुदुवारा मेला, चिंतपूर्णी मंदिर मेला, कामाख्या मंदिर मेला, हिमाचल हिल फेस्टिवल इनमें से कुछ हैं। सदियों पुराना सायर उत्सव, हर साल सितंबर के मध्य शिमला, कांगड़ा, मंडी, कुल्लू और सोलन जिलों में मनाया जाता है। इस उत्सव में फसलों की कटाई के अंत को चिह्नित करने के लिए राखी के धागे को उतारकर सायरी मां को अर्पित किया जाता है। मेले और त्योहार हिमाचल प्रदेश की सांस्कृतिक धरोहर को जीवंत बनाए रखते हैं, जो लोगों को उनकी परंपराओं का मान और सम्मान करने का मौका देते हैं।राज्य अपनी सुंदर प्राकृतिक वातावरण के साथ ही साथ अपनी अनमोल कला और हस्तशिल्प के लिए भी प्रसिद्ध है। हिमाचली लोग अपनी मेहनत और प्रतिभा से प्रसिद्ध हैं और इसका सबसे बड़ा प्रमाण उनकी कला और शिल्प में प्रतिफलित होता है। यहां से निकलने वाले अत्यंत सुंदर हस्तशिल्प सच में देखने लायक हैं। दरी, चमड़े का काम, शॉल, चित्रकला, धातु के बर्तन, लकड़ी का काम और उस पर चित्रकारी प्रमुख हैं। बहुत अधिक मांग में होने वाली पश्मीना शॉल इस राज्य का एक महत्वपूर्ण उत्पाद है। रंगीन हिमाचली टोपियाँ भी लोगों की पहली पसंद हैं। एक जनजाति जिसका नाम डोम हैl वह बांस के उत्पादों के निर्माण में माहिर है, जैसे कि बक्से, सोफे, कुर्सियाँ, टोकरियाँ और रैक। मिट्टी के बर्तन और मूर्तियाँ भी प्रसिद्ध हैं। साथ ही साथ राज्य के धातु उपकरण, धार्मिक भंडारण, मूर्तियाँ, सोने और चांदी के आभूषण भी शामिल हैं। हिमाचल प्रदेश जो अपने पहाड़ों, नदियों, बागों और वन्य जीवन से प्रसिद्ध है। इसके अलावा इस राज्य की पहाड़ी चित्रकला भी उत्कृष्ट है, राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रसिद्धि प्राप्त की है। पहाड़ी चित्रकला एक ऐसी अद्भुत विरासत है, जो हमें भारतीय पारंपरिक कला की खूबसूरती, जीवन और संस्कृति के अनुभवों को साझा करती है। यह कला शैली पहाड़ी राज्यों जैसे कि हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, जम्मू-कश्मीर में प्रमुख रूप से प्रचलित है। पहाड़ी चित्रकला में धार्मिक, पौराणिक, ऐतिहासिक, जीवन की सामान्यता, स्थानीय संस्कृति का गौरव, प्राकृतिक सौंदर्य की महत्ता होती है। इस कला शैली की विशेषताओ में रंग, रेखाएं, भाव और आकार-प्रकार का प्रयोग होता है। जीवन के विभिन्न पहलुओं को चित्रित करने के लिए स्थानीय प्राकृतिक तत्वों का विवरण दिया जाता है, जैसे फूल-पत्ती, विभिन्न प्राकृतिक अभिप्राय, पशु-पक्षी तथा स्थानीय जीवनशैली प्रमुख हैं।पहाड़ी चित्रकला जिसे (पहाड़ी क्षेत्रों की कला शैली) के रूप में व्याख्यात है, उत्तर भारत के निचले हिमालयी पहाड़ी राज्यों के आदिवासी और स्थानीय संस्कृति का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। इस कला का मूल्यांकन करते समय हमें इसकी अनूठी शैली, विविधता और ऐतिहासिक महत्व का ध्यान देना चाहिए। पहाड़ी चित्रकला का उद्भव 17वीं सदी में हुआ था और 19वीं सदी के मध्य तक इसका समृद्ध विकास हुआ। यह कला बसोहली, मनकोट, नूरपुर, चंबा, कांगड़ा, गुलेर, मंडी और गढ़वाल जैसे क्षेत्रों में प्रचलित थी। एक प्रसिद्ध नैनसुख के गुरु थे, जिनकी कला के विरासती परिवार इस कला को आगे बढ़ाने का कार्य कर रही है। पहाड़ी चित्रकला का मुख्य विषय हिंदू देवताओं का चित्रण है, विशेष रूप से राधा और कृष्ण के प्रेम का विवरण है। यहां की चित्रकला में एक विशिष्ट लय, सहज लय, कोमलता, मानवीय भावनाओं का साहसिक उपयोग होता है, जो इसे अनूठा बनाता है। पहाड़ी चित्रकला का उदभव मुगल चित्रकला से हुआ है, लेकिन इसे अधिकतर राजपूत राजाओं ने संरक्षित किया। वे कई हिस्सों पर शासन करते थे और इस क्षेत्र में चित्रकला को प्रोत्साहित किया। इस प्रकार पहाड़ी चित्रकला ने भारतीय चित्रकला में एक नए मायने प्रदान किए। कुछ स्थानीय परंपराओं ने भी इसमें अपना योगदान दिया, जैसे कि 9वीं और 17वीं शताब्दी के बीच कश्मीर में भित्ति चित्रों की एक उत्कृष्ट परंपरा विकसित हुई। इस कला का निर्माण करने में स्थानीय परंपराओं का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। यहां की परम्परागत चित्रकला में गहरा रूचि है। इस कला में मुगल चित्रकला के आदर्शों को स्थानीय भावनाओं और परिप्रेक्ष्य के साथ मिलाकर प्रस्तुत किया गया है। पहाड़ी चित्रकला की विशेषता में स्थानीय रूचियों का महत्वपूर्ण स्थान है। यहां की परंपराएं और लोककला इस कला को अनूठे बनाती हैं और उसे उन्नति की दिशा में ले जाती हैं। इसमें स्थानीय दृश्य, धर्म और संस्कृति का विस्तारित चित्रण होता है, जिससे यह चित्रकला अत्यंत प्रेरणादायक और समृद्ध होती है। इसी का एक उदाहरण प्रारंभिक लोक शैली के रूप में प्रसिद्ध है जिसे बसोहली चित्रकला शैली के नाम से जाना जाता हैlबसोहली शैली ने भारतीय कला में एक महत्वपूर्ण स्थान बनाया है, जो पहाड़ी राज्य की संस्कृति और कला की विविधता को प्रतिष्ठित करता है। सन् 1678 से 1695 तक कृपाल पाल के शासनकाल में बसोहली शैली ने उत्कृष्ट रूप में विकसित हुई, जो मोतियों को चित्रित करने के लिए छोटे चमकीले हरे कीट-पंखों और पन्ना के प्रभाव का उपयोग करती है। इस शैली के लक्षणों में उष्ण पीले रंग का प्रयोग, प्रकृति के शैलीगत दृश्यांकन तथा श्वेत रंग का अनुकरण भी शामिल है। इन विशेषताओं ने पश्चिम भारतीय चौरपंचाशिका समूह की चित्रकला के सौंदर्य को साझा किया। बसोहली शैली ने उत्तरी भारतीय कला के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया है और उसका अध्ययन कला इतिहास में महत्वपूर्ण माना जाता है। भानुदत्त की ‘रासमंजरी’ ने बसोहली कलाकारों के लिए एक प्रमुख स्रोत के रूप में कार्य किया। इस काव्य के रूप में उन्होंने अनेक रसों को साधने वाली राधा-कृष्ण की प्रेम कथा को बखूबी प्रस्तुत किया। यह काव्य बसोहली कला के कई प्रमुख विषयों को उजागर करता है, जैसे कि भगवत पुराण, रागमाला और स्थानीय सांस्कृतिक विषय। सन् 1694-95 में तरखान देवीदास ने राजा कृपालपाल के लिए एक आलीशान चित्रकला श्रृंखला बनाई, जो उनके समर्थन में उच्चतम शैली की प्रतिष्ठा को प्रकट करती है। यह चित्रों की नवीनतम शैली को प्रस्तुत करती है, जो ‘गुलेर-काँगड़ा’ के रूप में जानी जाती है। इस अवधि में चित्रों में स्थानीय राजाओं के साथ-साथ उनके दरबारियों, पत्नियों, ज्योतिषियों, वैद्यों, गणिकाओं और अन्य लोगों की छवियां बनाई गई। बसोहली चित्रकला के कलाकारों ने धीरे-धीरे अपने शैली को उत्तरी पहाड़ी राज्यों में प्रसारित किया, जैसे कि चंबा और कुल्लू। इस प्रक्रिया ने स्थानीय रूपांतर के साथ बसोहली (कलम) शैली की नवीनतम रूप ‘गुलेर-काँगड़ा’ को उत्पन्न किया। इस प्रकार बसोहली चित्रकला ने पहाड़ी कला के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। बसोहली से प्रारंभ होकर काँगड़ा शैली ने पहाड़ी कला के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया। इस शैली ने धीरे-धीरे अन्य पहाड़ी राज्यों में प्रसारित होते हुए मनकोट, नूरपुर, कुल्लू, मंडी, बिलासपुर, चंबा, गुलेर, काँगड़ा में विकसित होती गई। इस शैली के कलाकारों ने संस्कृत महाकाव्य रामायण को अपना पसंदीदा विषय बनाया विशेष रूप से कुल्लू के कलाकारों ने। उन्होंने ‘शांगरी’ नामक एक श्रृंखला बनाई, जो कुल्लू के राजकीय परिवार की एक शाखा थी, जिन्होंने इस श्रृंखला के संरक्षक और प्रारंभ में इसके स्वामी थे। कुल्लू के कलाकारों के चित्र बसोहली और बिलासपुर शैलियों के विभिन्न अंदाज़ों से प्रभावित हुए। इस प्रकार काँगड़ा शैली ने पहाड़ी कला के साथ उत्तरी भारत में एक सांस्कृतिक परिवर्तन का संचार किया।रामायण के अयोध्या कांड पर आधारित एक चित्र का वर्णन किया गया है, जिसमें राम, सीता, और लक्ष्मण के वनवास की तैयारी का दृश्य प्रस्तुत है। राम धैर्य से अपने अधिकारों की वस्तुओं को दान करते हुए दिखाई देते हैं, जबकि लक्ष्मण उनके अनुरोध पर उनकी सहायता करते हुए दिखाई देते हैं। सीता चिंतित और आशंकित होती हैं, जबकि चित्र में अन्य व्यक्तियों की भीड़ उनके दानशील प्रिय राम की अमूल्य ज़ेवरों को ग्रहण करने के लिए उनकी ओर बढ़ रही है। चित्र में विभिन्न भाव-भंगिमाओं को उत्कृष्ट रूप से प्रस्तुत किया गया है, जैसे कि राम की शांत मुस्कान, लक्ष्मण का आतुर भाव, सीता की चिंता और अन्य लोगों की आशंका और कृतज्ञता। उन्होंने राम द्वारा पकड़े पारदर्शी वस्त्र, ब्राह्मणों की दाढ़ी और तिलक, गहने और शस्त्रों का विवर्णन भी किया है। इस चित्र में उत्कृष्ट प्रभाव प्रस्तुत करने के लिए कलाकार ने अत्यधिक सावधानी और ध्यान से विभिन्न भावों और अंगों की व्यक्तिगतता को उजागर किया है। उन्होंने विविधता को अंकित किया है, जैसे कि गायें और बछड़े जो अवसर को समझ नहीं पा रहे हैं। चित्र में गर्दन ऊँची है और मुँह खुला है, जो अत्यधिक संतृप्ति और अचम्भा को दर्शाता है।पहाड़ी चित्रकला और बसोहली शैली प्राकृतिक सौंदर्य को अत्यंत विस्तृत और व्यक्तिगत ढंग से प्रस्तुत करती हैं। इन शैलियों में प्रकृति के विविध रूपों का अद्भुत अनुभव दिया जाता है, जिसमें पहाड़ों, नदियों, वनों और प्राकृतिक परिदृश्यों का उद्घाटन किया जाता है। इन शैलियों के माध्यम से कलात्मक और आध्यात्मिक महत्व को भी प्रकट किया जाता है, जहां प्राकृतिक प्रतीकों के माध्यम से ध्यान और आत्मा के साथ संवाद स्थापित किया जाता है। इस प्रकार पहाड़ी चित्रकला और बसोहली शैली समृद्ध और गहरे मानवतावादी अनुभव को प्रस्तुत करती हैं।

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