जिला ब्यूरो राहुल गुप्ता दमोह
दमोह- स्थानीय जबलपुर नाका पर चल रही श्रीमद् भागवत कथा के द्वितीय दिवस मे कथा वाचक आचार्य पंडित रवि शास्त्री महाराज ने कहा कि किसी भी व्यक्ति को अपने पद प्रतिष्ठा का अहंकार नही करना चाहिए उन्होने कहा गुरू द्रोणाचार्य अपने पिता के आश्रम में ही रहते हुये चारों वेदों तथा अस्त्र-शस्त्रों के ज्ञान में पारंगत हो गये। द्रोण के साथ प्रषत् नामक राजा के पुत्र द्रुपद भी शिक्षा प्राप्त कर रहे थे तथा दोनों में प्रगाढ़ मैत्री हो गई। उन्हीं दिनों परशुराम अपनी समस्त सम्पत्ति को ब्राह्मणों में दान कर के महेन्द्राचल पर्वत पर तप कर रहे थे। एक बार द्रोण उनके पास पहुँचे और उनसे दान देने का अनुरोध किया। इस पर परशुराम बोले, तुम विलम्ब से आये हो, मैंने तो अपना सब कुछ पहले से ही ब्राह्मणों को दान में दे डाला है। अब मेरे पास केवल अस्त्र-शस्त्र ही शेष बचे हैं। तुम चाहो तो उन्हें दान में ले सकते हो। द्रोण यही तो चाहते थे अतः उन्होंने कहा, हे गुरुदेव आपके अस्त्र-शस्त्र प्राप्त कर के मुझे अत्यधिक प्रसन्नता होगी, किन्तु आप को मुझे इन अस्त्र-शस्त्रों की शिक्षा-दीक्षा देनी होगी तथा विधि-विधान भी बताना होगा। इस प्रकार परशुराम के शिष्य बन कर द्रोण अस्त्र-शस्त्रादि सहित समस्त विद्याओं के अभूतपूर्व ज्ञाता हो गये।शिक्षा प्राप्त करने के पश्चात द्रोण का विवाह कृपाचार्य की बहन कृपी के साथ हो गया। कृपी से उनका एक पुत्र हुआ। जिसका नाम अश्वत्थामा है। द्रोणाचार्य ब्रह्मास्त्र का प्रयोग जानते थे जिसके प्रयोग करने की विधि उन्होंने अपने पुत्र अश्वत्थामा को भी सिखाई थी। द्रोणाचार्य का प्रारंभिक जीवन गरीबी में कटा उन्होंने अपने सहपाठी द्रुपद से सहायता माँगी जो उन्हें नहीं मिल सकी। एक बार वन में भ्रमण करते हुए गेंद कुएँ में गिर गई। इसे देखकर द्रोणाचार्य ने अपने धनुर्विद्या की कुशलता से उसको बाहर निकाल लिया। इस अद्भुत प्रयोग के विषय में तथा द्रोण के समस्त विषयों मे प्रकाण्ड पण्डित होने के विषय में ज्ञात होने पर भीष्म पितामह ने उन्हें राजकुमारों के उच्च शिक्षा के नियुक्त कर राजाश्रय में ले लिया और वे द्रोणाचार्य के नाम से विख्यात हुये। द्रोणाचार्य और द्रुपद बचपन के मित्र थे। दोनों ने साथ में शिक्षा ग्रहण की थी। एक बार द्रोणाचार्य की आर्थिक स्थिति बहुत खराब हो गई थी। उनके घर में खाने के लाले पड़ने लगे थे। वे अपनी पत्नी और अपने बच्चे का भरण-पोषण नहीं कर पा रहे थे। द्रोणाचार्य स्वाभिमानी थे लेकिन अपने बच्चे अश्वत्थामा की दरिद्रता उनसे सहन नहीं हो पा रही थी। इसलिए उन्होंने अपने बचपन के दोस्त द्रुपद से मदद मांगने की ठानी। द्रुपद उस समय पांचाल देश के राजा थे।
द्रोणाचार्य अपने मित्र से मिलने पांचाल देश पहुंच गए। जैसे ही वे महल में पहुंचे तो राजा द्रुपद ने उन्हें पहचानने से इनकार कर दिया। द्रोणाचार्य ने उन्हें बचपन के सारे किस्से बताए। फिर द्रुपद ने कहा कि एक राजा और गरीब ब्राह्मण कभी मित्र नहीं हो सकते। द्रोणाचार्य अपमान का घूंट पीकर वहां से चले गए। मगर उनके मन में बदले का भाव आता रहा। इसके बाद वे कुरुदेश आ गए और कौरवों-पांडवों को शिक्षा देने लगे। शिक्षा पूर्ण होने के बाद अर्जुन ने द्रोणाचार्य को गुरुदक्षिणा देने के लिए कहा। द्रोणाचार्य ने गुरुदक्षिणा में पांचाल राज्य पर आक्रमण करके द्रुपद को बंदी बनाकर उनके सामने की मांग की। अर्जुन के नेतृत्व में पांडव और कौरवों ने पांचाल पर आक्रमण किया और द्रुपद की सेना को हराकर उन्हें बंदी बना लिया। फिर वे द्रुपद को द्रोणाचार्य के समक्ष लेकर आए।द्रोणाचार्य ने अपने अपमान का बदला ले लिया। हालांकि द्रोणाचार्य चाहते तो द्रुपद को हमेशा के लिए बंदी बना लेते या जंगल में छोड़ देते। मगर उन्होंने ऐसा नहीं किया। उन्होंने आधा राज्य अपने पास रख लिया और आधा राज्य द्रुपद को वापस दे दिया। द्रुपद के पास आधा राज्य तो वापस आ गया लेकिन वे प्रजा के सामने मुंह दिखाने के नहीं रहे।
अब राजा द्रुपद के मन में बदले की भावना आ गई। द्रोणाचार्य को कुरु राजवंश का समर्थन था इसलिए वह उनका बाल भी नहीं बांका कर सकते थे। द्रोणाचार्य का काट ढूंढने के लिए उन्होंने एक महायज्ञ करवाया। उसी यज्ञ की अग्नि से एक तेजस्वी बालक का जन्म हुआ। उसका नाम धृष्टद्युम्न रखा गया। कहा गया कि द्रोणाचार्य धृष्टद्युम्न के हाथों ही मारे जाएंगे।
महाभारत के युद्ध में द्रोणाचार्य कौरवों की तरफ से लड़े और द्रुपद ने पांडवों का साथ दिया। जब पांडवों ने छल से द्रोणाचार्य को निहत्था बना दिया, तो धृष्टद्युम्न ने ही उनका सिर धड़ से अलग कर दिया। इस तरह धृष्टद्युम्न ने अपने पिता के अपमान का बदला ले लिया। हालांकि, युद्ध खत्म होने के बाद द्रोणाचार्य के बेटे अश्वत्थामा ने धृष्टद्युम्न का बध कर दिया।