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द्वादश ज्योतिर्लिंग कथा और महत्व हिंदुत्व समन्वय समिति प्रदेश प्रचारक आचार्य बजरंग प्रसाद तिवारी ज्योतिषाचार्य बताया

मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग की महिमा

‘ॐ नमः शिवाय’, कहते हैं शिव कण कण में विराजमान हैं, लेकिन उनके साक्षात दर्शन करने के लिए उनके बारह ज्योतिर्लिंग की शरण में जाना होगा, जहां भगवान शिव ने खुद को अवतरित किया है। बारह ज्योतिर्लिंग की महिमा निराली है और इन्हीं में से एक है शैल मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग।

मल्लिकार्जुन दो महत्वपूर्ण शब्दों से मिलकर बना है, जिसमें मल्लिका यानी माता पार्वती और अर्जुन यानी भगवान शिव। यह स्थान न सिर्फ बारह ज्योतिर्लिंग में से एक है, बल्कि इसकी गणना 52 शक्तिपीठों में भी की जाती है।

ऐसी मान्यता है, कि माता सती की देह त्याग के उपरांत भगवान शिव ने उनके शव को लेकर तांडव किया था, उस समय माता के शरीर के अलग-अलग अंग भारत के 52 स्थानों पर गिर गए थे, जो आज शक्तिपीठ के नाम से प्रसिद्ध हैं।

 

वहीं, माता सती के होठ का ऊपरी हिस्सा मल्लिकार्जुन में गिरा था, जिससे इस स्थान को ज्योतिर्लिंग के साथ ही शक्तिपीठ होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।* शक्तिपीठ और ज्योतिर्लिंग एक ही स्थान पर होने के कारण यह स्थान उन श्रद्धालुओं के लिए और ज्यादा पूजनीय हो गया, जो भगवान शिव के साथ ही माता पार्वती की आराधना करते हैं।

 

इस पवित्र स्थान का उल्लेख महाभारत, शिवपुराण तथा पद्म पुराण जैसे प्राचीन ग्रंथों में भी किया गया है। कहते हैं इस स्थान का संबंध भगवान भोलेनाथ और माता पार्वती के साथ ही भगवान कार्तिकेय से भी है।

 

प्राचीन शास्त्रों और पुराणों में इस स्थान को लेकर एक अत्यंत पावन घटना का उल्लेख मिलता है। पुराणों के अनुसार जब भगवान कार्तिकेय पृथ्वी की प्रदक्षिणा कर रहे थे, तब भ्रमण कर रहे नारद मुनि ने भगवान गणेश के विवाह के बारे में कार्तिकेय भगवान को विस्तार से बताया।

विवाह की सूचना प्राप्त होते ही स्वामी कार्तिकेय वापस लौटे तब उन्होंने देखा कि ना सिर्फ श्री गणेश का विवाह हो चुका था, बल्कि उन्हें क्षेम तथा लाभ नामक दो पुत्र भी प्राप्त हो चुके हैं। यह सब देखकर स्वामी कार्तिकेय अत्यंत रुष्ट हो गए और माता-पिता के चरण स्पर्श करके वे क्रौंच पर्वत पर चले गए और वहीं, अपना निवास स्थान बना लिया।

माता पार्वती ने नारद मुनि को कार्तिकेय स्वामी को मनाने के लिए भेजा लेकिन देवर्षि नारद उन्हें मनाने में सफल नहीं हो पाए। तब माता पार्वती अपने पुत्र को मनाने के लिए भगवान शिव के साथ क्रौंच पर्वत पर पहुंची। जैसे ही भगवान कार्तिकेय को अपने माता पिता के वहां होने की सूचना प्राप्त हुई तो वह वहां से कहीं और चले गए।

जब भगवान शिव और माता-पार्वती वहां पहुंचे, तो उन्होंने कार्तिकेय भगवान वहां नहीं पाया, जिससे वे बहुत दुखी हुए। उन्हें लगा कि स्वामी कार्तिकेय कभी ना कभी उस स्थान पर जरूर आएंगे इसलिए पुत्र मोह के कारण अमावस्या के दिन भगवान शिव और पूर्णिमा के दिन माता पार्वती वहां बारी-बारी से जाने लगे। दोनों के इस स्थान पर ज्योति के रूप में कई बार प्रकट होने से यह स्थान मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग के रूप में प्रसिद्ध हो गया।

इस स्थान के दर्शन से ना सिर्फ ज्योतिर्लिंग बल्कि शक्तिपीठ दोनों के दर्शन का फल एक साथ प्राप्त होता है। कहते हैं, कि भगवान शिव के दर्शन ही नहीं, बल्कि उनकी अलौकिक कथा को सुनने से भी मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है।

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